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चाहत / शचीन्द्र भटनागर

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दिवस मास बीतते रहे
रंग और गुलाल के लिए

चाहत थी
सुबह दोपहर कभी
रंगभरा ! क्षण हमें मिले
चट्टानों बीच
किसी सन्धि में
कोई मनहर सुमन खिले
पर कोमल दूब छोड़, हम
भागे शैवाल के लिए

होता है रक्त और गुलाल का
बाहर से
रंग एक सा
किन्तु
एक विषभरा भुजंग है
एक प्यार में रचा बसा
चलो, दृष्टि स्वच्छ हम करें
तीक्ष्ण अन्तराल के लिए

हम न कभी तपकर
आकाश में छाँहभरी बदली बने
खिल देख-देख
खिलखिला सकें
हम न कभी वह कली बने
और समाधान टल गए
एक और साल के लिए