भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाहत / शचीन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
दिवस मास बीतते रहे
रंग और गुलाल के लिए
चाहत थी
सुबह दोपहर कभी
रंगभरा ! क्षण हमें मिले
चट्टानों बीच
किसी सन्धि में
कोई मनहर सुमन खिले
पर कोमल दूब छोड़, हम
भागे शैवाल के लिए
होता है रक्त और गुलाल का
बाहर से
रंग एक सा
किन्तु
एक विषभरा भुजंग है
एक प्यार में रचा बसा
चलो, दृष्टि स्वच्छ हम करें
तीक्ष्ण अन्तराल के लिए
हम न कभी तपकर
आकाश में छाँहभरी बदली बने
खिल देख-देख
खिलखिला सकें
हम न कभी वह कली बने
और समाधान टल गए
एक और साल के लिए