चाहा तो ऐसा ही था! / रश्मि प्रभा
"पुष्प की अभिलाषा" से मेरा क्या वास्ता था
अपनी तो बस एक चाह थी
छोटी सी पर बहुत बड़ी...
कि मैं बनूं,
अल्हड, अगराती पुरवा का
बेफिकर, बेखौफ, बिंदास झोंका
दरवाज़ा चाहे जिसका भी हो,
उसकी सांकल खटखटा दूं
और दरवाज़े के खुलते ही
जब तक कोई संभले,
शैतान बच्चे की तरह -
करीने से रखी सारी चीज़ें बिखेर दूं,
मेरी धमाचौकड़ी से जो मचे
अफरातफरी...सामान सहेजने की
तो मैं शोखी का जामा पहनकर
ज़ोर से खिलखिलाऊं!
बन जाऊं ---
केदार की बसंती बंजारन
जायसी की कलम से निकला
वो भ्रमर, वो काग
कालिदास का मेघ
प्रियतम का संदेश सुनाता,
गाता मेघराग
पहाड़ों के कौमार्य में पली
वादियों के यौवन में ढली
शिवानी की अनिंद्य सुंदरी नायिका!
...
बारिश ठहरने के बाद
आहिस्ता आहिस्ता टपकती बूंदों की
नशीली आवाज़ की तरह,
मिल जाए कोई
इश्क-सा!
पकड़ ले मेरा हाथ
और कहे,
'थम भी जा बावरी!
थक जाएगी,
आ, थोड़ा बैठ जा
चल मेरे संग
एक प्याली चाय
आधी- आधी पी लें...
पर ज़रा रुक,
मैं बंद कर लूं खिड़कियां
वरना निकल जाएगी तू!
...
बता तो सही,
नदी, नालों, पहाड़ों को पार करते
सुदीर्घ यात्रा तय कर
हंसिनी सी,
मानसरोवर के तीर जा पहुंचती है...
क्या तलाश रही है?
खुद को?
मिल जाएगी क्या ऐसे?
खुद से?
अकेली ही?
और मैं!
पुरवा का परिधान उतार कर
उस माहिया,
उस रांझणा के पन्नों पर
स्याही सी बिखर जाऊं
...
मेरे अंदर की पुरवाई ने
चाहा तो ऐसा ही था!