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चाहे जहाँ जाओ / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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तुम जहाँ चाहे जाओ – रहूँगा मैं तो इसी गाँव में,
देखूँगा सुबह की ठंडी हवा से झरते पत्तों को,
शाम की ठंड से बर्फ़ होते मैना के सांवले डैनों को,
और उसके चमकते पीले पंजों पर थिरकते उसे ,
घास पर, अंधकार में – एक बार – दो बार – कि, हठात –
पुकार लेगी जंगल की पलाश उसे अपने अंक में,
देखूँगा उन उदास हाथों को, उन उदास चूड़ियों को,
रोती हुई खड़ी है जो उस तालाब के किनारे;

ले जाएगी इस बादामी हंस को किसी परीलोक में,
उड़ाती हुई अपने मुलायम शरीर से लिहाफ़ की गंध,
शायद यहीं किसी कमलदल पर पैदा हुई,
चुपके से धो कर अपने पाँवों को – चली जाती है जो निरुद्देश्य –
किसी घने कुहासे की ओट में,
मालूम है ढूँढ ही लूँगा मैं उसे फिर किसी दिन,
रहती तो होगी इसी गाँव में।