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चाहे सो हमें कर तू गुनह-गार हैं तेरे / 'हसरत' अज़ीमाबादी

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चाहे सो हमें कर तू गुनह-गार हैं तेरे
तक़दीर थी अपनी कि गिरफ़्तार हैं तेरे

मरते हैं कभी आ के हमारी भी ख़बर ले
आह ऐ बुत-ए-बे-दर्द ये बीमार हैं तेरे

नक़्द-ए-दिल-ओ-दीं-मुफ़्त में दे बैठेंगे आख़िर
हम आशिक़-ए-मुफ़लिस कि ख़रीदार हैं तेरे

ख़्वाहिश है ने बोसे की न आग़ोश से मतलब
दीदार के याँ सिर्फ़ तलब-गार हैं तेरे

है रू-ए-ज़मीं अर्सा-ए-महशर उन्हें हर रोज़
जो दिल-शुदा-ए-क़ामत-ओ-रफ़्तार हैं तेरे

हम वस्ल में और हिज्र में जलते रहे उन से
क्या दाग़-ए-जिगर ये गुल-ए-रूख़-सार हैं तेरे

सौगंद है ‘हसरत’ मुझे एजाज-ए-सुख़न की
ये सेहर हैं जादू हैं न अशआर हैं तेरे