भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाहे सो हमें कर तू गुनह-गार हैं तेरे / 'हसरत' अज़ीमाबादी
Kavita Kosh से
चाहे सो हमें कर तू गुनह-गार हैं तेरे
तक़दीर थी अपनी कि गिरफ़्तार हैं तेरे
मरते हैं कभी आ के हमारी भी ख़बर ले
आह ऐ बुत-ए-बे-दर्द ये बीमार हैं तेरे
नक़्द-ए-दिल-ओ-दीं-मुफ़्त में दे बैठेंगे आख़िर
हम आशिक़-ए-मुफ़लिस कि ख़रीदार हैं तेरे
ख़्वाहिश है ने बोसे की न आग़ोश से मतलब
दीदार के याँ सिर्फ़ तलब-गार हैं तेरे
है रू-ए-ज़मीं अर्सा-ए-महशर उन्हें हर रोज़
जो दिल-शुदा-ए-क़ामत-ओ-रफ़्तार हैं तेरे
हम वस्ल में और हिज्र में जलते रहे उन से
क्या दाग़-ए-जिगर ये गुल-ए-रूख़-सार हैं तेरे
सौगंद है ‘हसरत’ मुझे एजाज-ए-सुख़न की
ये सेहर हैं जादू हैं न अशआर हैं तेरे