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चाहे हों कितने ही विद्या-कला / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(धुन खंभावती-ताल कहरवा)
 
चाहे हों कितने ही विद्या-कला-निपुण, भोगी श्रीमन्त।
चाहे हों सम्राट, राष्ट्रपति, चाहे हों गृह त्यागी संत॥
भौतिक भोग-शरीर-नामसे जो रखते मनका सबन्ध।
पाते सतत अशान्ति-दुःख वे, नहीं टूटता उनका बन्ध॥
जो भोगस्थ न हों हो रहते नित्य सतत प्रभुके चरणस्थ।
वे आस्वादन करते द्वन्द्वरहित नितशान्ति-सुधा-सुख, स्वस्थ॥
चाहे हों दरिद्र वे सब विधि, दीन-हीन सबसे परित्यक्त।
सुख स्वरूप वे रहते नित्य अनन्त दिव्य प्रभु-पद-‌आसक्त॥
निर्मल भगवत्प्रेम-भास्करका होते ही दिव्य प्रकाश।
मिट जाता अघ दुःख-‌अन्धतम, छाता ज्योतिर्मय उल्लास॥
बहती वहाँ मधुर रस धारा पलवित कर सारा संसार।
रह जाता न कहीं कैसा भी रञ्चक कटु विष, विषय-विकार॥