चाह कहो / विकि आर्य

चाह कहो
गर्ज़ कहो
प्रतिज्ञा या
फ़र्ज कहाँ
और न दुआ
न बाकि तमन्ना रहे,
मन में सुलगती
धधकती आग रहे.
आग आँखों में
आग हाथों में
आग दामन में
आग ही मन में रहे
आग दियों में, उजालों में रहे
आग सूरज में धूप सी खिले.
आग गुमनाम राहों में मशालों की जले
आग से दुनिया में क्रान्तियाँ जन्में.
आग पावन यज्ञ में
आग जीवन में, चूल्हे की रहे.
और न दुआ
न बाकि तमन्ना रहे
मन में सुलगती.
धधकती आग रहे.
आग जो शंकर की
तीसरी आँख से उपजे
आग जो मार सके ‘मार’ को भी
आग वो, जो गौतम को बुद्ध करे
आग जो सीता के
फैसले निष्पक्ष करे
आग, जो भस्माभूत
अभिमानी की लंका करे
आग, जो गिरा दे
हर नामुमकिन दीवार
आग, जो आशिक को
फरहाद करे
आग में जल कर ही
निखर आता है सोना,
आग जो फौलाद भी
साँचों में ढाल दे !
और न दुआ
न बाकि तमन्ना रहे
मन में धधकती,
सुलगती आग रहे

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