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चाह मेरी / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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चाह मेरी रही एक ही आज तक
जिस तरह हो, सदा फूल-सा ही खिलूँ।
शूल चुभते रहे रात-दिन किन्तु पल-
भर न मुसकान मेरी कभी मन्द हो,
तन सुरभि के सुकोमल कणों से बने
और उर में भरा मधुर मकरन्द हो।
सुरभि-रसपूर्ण जीवन बने विश्व का
यह सँदेसा लिए मैं पवन से मिलूँ॥1॥
भ्रमर की भाँति जो भी पथिक आ मिले
प्रेरणा मैं उसे दूँ सरस गीत की;
थक गये हों अगर पैर उसके कहीं
मैं बिठा लूँ उसे गोद में प्रीति की।
तोड़ ले जग मुझे, जीत उसकी रहे,
हार बन कर सही, मैं गले से मिलूँ॥2॥
मैं बिछूँ उन पगों में कि जो कंटकों
से भरी राह पर मुसकराते बढ़़े;
मैं चढूँ सीस उनके कि जो विश्व-हित
पी गये विष, विहँस शूलियों पर चढ़े।
सेज का मैं बनूँ स्वयं शृंगार, औ’
साथ शव के निरंतर चिता तक चलूँ॥3॥
21.8.59