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चाह रेशम की साड़ियों-सी है / श्याम कश्यप बेचैन
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चाह रेशम की साड़ियों-सी है
राह काँटों की झाड़ियों-सी है
रोज़ खुलती है, बंद होती है
रात काली किवाड़ियों-सी है
झूठ की सरज़मीं पे सच्चाई
ख़ुश्क नंगी पहाड़ियों-सी है
कट ना जाऊँ दरख़्त की मानिंद
उसकी कोशिश कुल्हाड़ियों-सी है
उसकी महफ़िल में हैसियत अपनी
शहर में बैलगाड़ियों-सी है
शर्त हर बात पे लगाता है
उसकी फ़ितरत जुआरियों-सी ह
ग़म के बाजार में हमारी भी
साख अब मारवाड़ियों-सी है