चिंतन / विमल राजस्थानी
सोच रही वासव गवाक्ष-ढ़िग बैठी निपट अकेली
कुटिल नियति ने कैसी-कैसी की मुझात्रसे अठखेली
निश्चिय-सा लगता भिक्षुक को कभी नहीं पाऊँगी
साध, मिलन की लिये-लिये ही भूतल से जाऊँगी
नारी हूँ, नारी को यों भी मोक्ष नहीं मिलता है
बिना पुरुष की देह धरे वह स्वर्ग नहीं हिलता है
नहीं विधाता ने दी ग्रंथि विशेष कि पूर्ण बने वह
मुक्ति-मोक्ष के सम्मुख नर की भाँति दग्र तने वह
नहीं एक पुण्य-कार्य जीवन में कभी किया है
जीवन को जीवन के ढँग से मैंने नहीं जिया है
छक कर मादक दंभ-सुरा का पान किया है मैंने
जग को शत-शत करों रूप का दान दिया है मैंने
नहीं एक पल को भी मेरे मरण सामने आया
स्वर्ग सदा परितृप्ति हेतु मम शरण माँगने आया
इस जीवन के पार न जाने कैसा जीवन होगा
पावन या कि अपावन होगा,धनी कि निर्धन होगा
या कि कीट बन किसी वस्तु में सोयी पड़ी रहूँगी
जो भी जीवन मिले सी में खोयी पड़ी रहूँगी
किप्तु सिद्ध योगी तो निश्चय मुक्ति-मोक्ष पाते हैं
कितने तो ऐसे हैं जो सदेह स्वर्ग जाते हैं
योग-भ्रष्ट यदि हुआ तपस्वी, राजा ही होता हैं
गंगा-यमुना के पवित्र जल से कुकृत्य धोता है
यदि मेरा भिक्षुक भी क्वचिद् विरत हो गया सुपथ से
निश्चय दिवस किसी निकलेगा यमुना-तट से, रथ से
मैं पत्थर की रह कर भी युग-युग तक बाट तकँूगी
हेतु दृष्टि-विक्षेप प्रतीक्षा मंे मैं निरत रहुँगी
पा कर पद-स्पर्श संभवतः मुझको हो जाये हितकारी
प्राणवान हो प्रियतम का शुचि प्रेम कहीं पा जाऊँ
थिरक-थिरक नाचूँ, गा-गा कर स्वर्ग धरा पर लाऊँ
हुआ न ऐसा, मुक्ति-मोक्ष का बना भिक्षु अधिकारी
देख-देख प्रतिमा को निश्चय सोचेंगे संसारी
यह वह नारी है जिसने पाया न प्रेम जीवन में
पत्थर की बन गयी अभागिन अपने ही आँगन में
बिना लियें प्रति-दान प्रेम करने वाली यह नारी
निश्चय ही है प्रात्र दया की, करूणा की अधिकारी
करूणा विगलित आँखों से आँसू दो-चार झरेंगे
पी लेगे पीड़ा मेरी, मोती बन कर बिखरेंगे
वे मोती ऐसे होंगे जिनको कुबेर तरसेगा
उनकी ज्योत्सना का हिम निश्चय मेरा ताप हरेगा