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चिंतामय / अज्ञेय

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 आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं-
बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं;
निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है
वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है।

आज स्मृतियों की नदी से शब्द तेरे पी रहा हूँ
प्यास मिटने की असम्भव आस पर ही जी रहा हूँ!
पा न सकने पर तुझे संसार सूना हो गया है-
विरह के आघात से प्रिय! प्यार दूना हो गया है!

जब नहीं अनुभूति मिलती लोग दर्शन चाहते हैं,
उदधि बदले बूँद पा कर विधि-विधान सराहते हैं;
किन्तु दर्शन की कमी न बन गयी अनुभूति मुझ को
यह तृषित चिर-वंचना की मिली दिव्य-विभूति मुझ को!

दीखता है, प्राप्ति का कंगाल बन कर मैं रहूँगा;
स्मित-विहत मुख से सदा गाथा भविष्यत् की कहूँगा!
जगत् सोचेगा कि इस कवि ने विरह जाना नहीं है,
विष-लता का विकच काला फूल पहिचाना नहीं है,

जब कि उस के तिक्त फल को आज लौं मैं खा रहा हूँ!
जब कि तिल-मिल भस्म अपने को किये मैं जा रहा हूँ!
किन्तु मुझ को समय उस का दु:ख करने का नहीं है-
भक्त तेरे को यहाँ अवकाश मरने का नहीं है।
भक्त का कोई समय रह जाय भी आराधना से

व्यस्त वह उसमें रहे आराधना की साधना से!
यदि सफल है दिवस वह जिस में भरा है प्यार तेरा-
रैन भी सूनी न होगी अंक ले अभिसार तेरा!
किन्तु कोरे तर्क से कब भक्त का उर भर सका है?

मेघ का घनघोर गर्जन कब तृषा को हर सका है?
बिखर जाते गान हैं सब व्यर्थ स्वर-सन्धान मेरे-
छटपटाते बीतते हैं दीर्घ साँझ-विहीन मेरे-
आज छू दे मन्त्र से, ओ दूर के मेहमान मेरे-
आज चिन्तामय हृदय है थक गये हैं प्रान मेरे!

आगरा, 2 दिसम्बर, 1936