भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चिटखा है / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
दब-दब चिंथ-चिंथ
चिटखा है
भीतर ही भीतर
सुलग गया है
दर्द रेत का
हवा तो
पहले से ही
बांधे बैठी बैर
पी-पी
लपक गई है आंच
आंखों को
झुलस गई है
अब जो
आएं आंसू
कहां रखेंगे
अगस्त’ 77