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चिट्ठियों से भरा झोला / गुरप्रीत
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कविता आई सुबह-सुबह
जागा नहीं था मैं अभी
सिरहाने रख गई- ‘उत्साह’।
उठा जब
दौड़कर मिला मुझे ‘उत्साह’
कविता की चिट्ठियों से भरा झोला थमाने।
एक चिट्ठी
मैंने अपनी बच्ची को दी
‘पढ़ती जाना स्कूल तक
मन लगा रहेगा…’
एक चिट्ठी बेटे को दी
कि दे देना अपने अध्यापक को
वे तुझसे बच्चा बन कर मिलेंगे...
चिट्ठी एक कविता की
मैंने पकड़ाई पत्नी को
गूंध दी उसने आटे में।
पिता इसी चिट्ठी से
आज किसी घर की
छत डाल कर आए हैं!
नहीं दी चिट्ठी मैंने माँ को
वह तो खुद एक चिट्ठी है !
मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव