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चिट्ठी रूठी हो क्या चार महीने से? / दीपक शर्मा 'दीप'
Kavita Kosh से
चिट्ठी रूठी हो क्या चार महीने से?
आओ लग भी जाओ मेरे सीने से
दर्द बहक जाता है थोड़े वक़्फ़े को
दर्द वगरना कम होता है पीने से?
‘जो मर जाते हैं वे मरते थोड़े हैं
वे तो केवल बच जाते हैं जीने से’
ना जाने क्या सुलगा कर के निकला है
गोया हरदम राख उड़े है सीने से
ख़बर नहीं हो पायी हम को मरने की
ऐसे लेकर निकला जान करीने से