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चिट्ठी / अशोक द्विवेदी


हम तोहके कइसे लिखीं?
कइसे लिखीं कि
बहुते खुश बानी इहाँ हम
होके बिलग तोहन लोग से…

हर घड़ी छेदत-बीन्हत रहेला
इहवों हमके गाँव
इयाद परावत रहेला हर घड़ी
ओइजा के बेबस छछनत जिन्दगी.
कल कहाँ बा बेकल मन के एहूजा?
हम ई सब लिखि के नइखीं चाहत मन दुखावल तोहार.

रुपया आ रौनक का एह शहर में
देखले बानी हमहुँ
एगो सुबिधा, न जिनिगी जिये के सपना.
सपना त पतई पर टँगाइल
ओस के बूने नु हऽ
घाम लागल ना कि उड़ि गइल.
फेरु शहर त शहर हऽ
इहवाँ अंत ले ना हो पावेला आदमी के
इतमीनान.

साँच मानऽ हमार परतीत करऽ
भुलाइल नइखीं हम कुछऊ
ना त, होत फजीरे तहरा पातर होठन पर
थिरके वाली किरिनिन के लाली
ना घर ना दुआर
ना खेत ना बधार
हमके इयाद बा आजो ऊ कटहरी चंपा के
बरबस खींचे वाली गंध
जवन पछिला साल हुलसि के खिल गइल रहे
आ तनिकी बर बोल दिहल पर मिलल रहे
अधरसा अमरुद अस न्यौतत
तहार मीठ झिड़की
ऊ बनावटी खीसि में आँख तरेरल तोहार
भला कइसे भोर परी?
बाकिर का करीं?
जवना खातिर घर छूटल
ऊ गरीबी, ऊ बेबसी
ऊ तहरा पुरान खाँखर होत साड़ी से झाँकत
मसकल कुर्ती
हमके भर नीन सूते ना देलस
आजु ले!

मन मार के केहूँ तरे जीयल
भला कवनो जीयल ह?
कूल्ही उछाहे मरि जाव जब जब जियला के
हँसी गायब हो जाय धीरे धीरे ओठन से
ना ना,
हम माई आ बाबूजी लेखा
नइखीं जीयल चाहत, मार के मन,
एही से
झोंकि दिहनी हम अपना के
अनजान शहर का एह दहकत भरसाईं में.

अब कम से कम एगो भरोसा आ
एगो सपना त बा
ढंग से जिनिगी जीये के
हम लड़त त बानी ओकरा खातिर इहां.

घबड़इहऽ जिन तू तनिको
इहाँ ठहर ठेकाना हो गइल बा
आ बहुत कुछ नीक जबून के ज्ञान
आज सिरिफ कुछ रुपिया भेजि के मनिआर्डर
ना होई सुब्बुर हमके
कपड़ो लत्ता से ना,
हम त देखल चाहत बानी
तोहन लोग के एतना खुशहाल
जेमे ना होखे अइसन कुछ के कमी
कि मन मार के जिये के परे…
एही इन्तजाम में बानी.

मत होइहऽ तनिको उदास तूँ
मन के थिर रखिहऽ
माई बाबू के दीहऽ ढाढस आ विश्वास,
हम जल्दिये लौटब गाँव
हो सकी त एही फगुआ ले!