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चिट्ठी / पुरुषोत्तम अग्रवाल
Kavita Kosh से
मैं हरिद्वार आऊँगा, समीर
तुमसे मिलने, ख़ुद से मिलने
बहुत दिनों, महीनों, बरसों सोचा
चिठ्ठी लिखूँ
लिखकर पूरी नहीं कर पाया,
जो लिखना था नहीं लिख पाया
गोरख पाण्डे कनकराज की राह गए, समीर
उनका फ़ैसला अख़बार में छ्पा है
लेकिन बहती नदी ने तुमसे...
तुमसे ज़रूर वह भी कहा होगा
जो अख़बार में नहीं छपा है.
उसे सुनने आऊँगा, समीर
भगीरथी को छूने ।
तुम्हारी कविता में वह बौद्ध भिक्खु आया
उसने वह कुआँ दिखाया
जिसमें पानी था, मंत्र भी दिया -’एत्थ’
फिर डूब गया – गहरे मौन में
मैं ही नहीं समझ पाया
मैं ही नहीं चल पाया ।
लेकिन एक दिन ऐसा आएगा, समीर
जब मैं आऊँगा हरिद्वार
तुमसे मिलने, ख़ुद से मिलने
चल कर आऊँ या उड़ कर
बस में आऊँ या कलश में
आऊँगा ज़रूर
किसी दिन ।