चिठ्ठी / बलबीर राणा 'अडिग'
घोर बटिन औंदी छै जब वा चिट्ठी
कुछ होंदी छै खट्टी कुछ होंदी मिठ्ठी
रुवांसी आंखरों मा दिखेंदु ब्वै कु दुलार
बाबा भ्यजदू छै सब्यूँ की ख़बरसार।
आंदी छै भुली की फर्मेश,भैजी की सल्ला
परदेश मा ना करि भुला कै दगड़ हो हल्ला
होन्दू छै काकी-बोड़ीयों कु मयालु आसिरवाद
नखर्याळी बोजियों की माया-मसखरी बात।
यार-आबतों की कुशल मिल्दि, गों ख़्वालों कु रंत-रैबार
बांचि जांदी छै वा चिठ्ठी, सब्यूँ का समणि बार-बार
लैंदी भैंसी की छविं लगांदी, लतेड़ गौड़ी की बात
खूब हंसान्दी छै ये परदेश मा, वे उज्याड़ा बल्दे कर्मात।
रिंगाले कलम से लिख्यां वों आंखरों मा
भटकणु रैन्दू मन फिर तों डोखरों मा
मैनो तक रैन्दी छै माटी की सौंणी सुगंध
कागज मा बन्ध्यों रैन्दू ज्यू कु अटूट बंधन।
जति मयाळी छै वा चिठ्ठी, तति गुस्यार बी होंदी छै
रोस-खरोस माया-ममता, एकी अन्तर्देशी मा ऐ जांदी छै
जति शर्मयाळी होंदी छै चिठ्ठी, लाजवंती बी उत्गा ही छै
मान मर्यादा मा रैन्दी छै वा, कबि बेशर्म बी ह्वे जांदी छै।
लुकि-लुकि पढ़ी जांदी वा कबि, कबि पंच्याति मा ऐ जांदी छै
कबि सिराणा पर चुप स्ये जांदी, कबि छाती पे बिणान्दी छै
कबि खुद का आँशुन भीजी जांदी, कबि खुशिक भुक्की प्ये जांदी छै
कख हरची ह्वली तू प्यारी चिठ्ठी, दयेख अब वा फोन नि उठान्दी छै।
कन याद करदी छै सब्यूँ की तु चिठ्ठी, अब कन यादों मा रैग्ये तु
सब्बि का ज्यू तेँ समलोणी वाळी तू, कन समलोंण्या रैग्ये तु।