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चिड़चिड़ी हवाएँ / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
दिया-बुझे
रोज़ रात आती हैं
चिड़चिड़ी हवाएँ
आँगन के पीपल पर बैठ
वे झगड़ती हैं
सोए दरवाज़े से
बार-बार लड़ती हैं
उठा-पटक करती हैं
घर भर में
ये सिड़ी हवाएँ
काँपते कैलेण्डर के
दिन सभी बदलती हैं
पिछली तारीख़ों पर
बैठ नहीं टलती हैं
कुदक-कुदक फिरती हैं
कमरे में
ये चिड़ी हवाएँ
अँधी हैं - बहरी हैं
शोर बहुत करती हैं
नींद से जगाती हैं
साँस में उतरती हैं
पर दिन के आते ही
हो जाती हैं
तिड़ी हवाएँ