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चिड़िया-सी धूप / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
सुबह खिली बढ़िया-सी धूप।
आयी बैठी दरवज़्ज़े पर,
उछली, पहुँच गयी छज्जे पर,
यह नन्हीं चिड़िया-सी धूप।
पल में आ जाती धरती पर,
पल में हो जाती छू-मन्तर,
जादू की पुड़िया-सी धूप।
लुढ़क रही कमरे के अन्दर,
बैठी मस्ती से बिस्तर पर,
यह गुड्डा-गुड़िया-सी धूप।
कमरे से आँगन में आकर,
भाग गयी खिड़की से बाहर,
ऐसी हड़बड़िया-सी धूप।
पीला रंग पेट में भरकर,
फूट गयी धरती पर गिरकर,
मिट्टी की हँड़िया-सी धूप।
दीवारों के श्याम-पटों पर,
जाने क्या लिखती है आकर,
मिट जाती खड़िया-सी धूप।
पके आम-से गालों वाली,
और पके-से बालों वाली,
लगती है बुढ़िया-सी धूप।