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चिड़िया का होना ज़रूरी है / शैलजा सक्सेना

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पेड़ पर फुदकती है चिड़िया
पत्ते हिलते हैं, मुस्कुराते हैं
चिड़िया उनमें भरती है चमकदार हरापन,
डाली कुछ लचक कर समा लेती है
चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,
पेड़ खड़े हैं सदियों से,
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
चिड़िया की गान पर गा उठता है पूरा जंगल,
चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को
और तान देती है पेड़ों के सिरों परों पर
धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में
जो वंचित है सूरज की ममता से,
चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान,
जंगल है सदियों से
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
ठीक वैसे,
जैसे,
धान के लिये ज़रूरी है
कमर झुकाए,
कीचड़ में हाथ-पाँव सानें
पसीने और थकावट के बीच
धान रोपती औरतों का फूटता गान,
जैसे दुनिया की कैनवास पर
दिखाई देने वाले बहुत से बदनुमा धब्बों के बीच
खिलता किसी फूल का रंग,
जैसे मनुष्य के दिमाग के
तमाम जालों और कुतर्कों के बीच बची
जीने की इच्छा,
मुठ्ठी भर मनुष्यता,
सदियों से चल रही है दुनिया
क्षणिक है आदमी,
पर आदमी का होना ज़रूरी है,
हाँ, चिडिया का होना ज़रूरी है।
-०-