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चिड़िया की आँख / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
Kavita Kosh से
मैं अपना सिर लटकाये बैठा था
लेकिन अब
अपनी गर्दन सीधी कर
उठ खड़ा हुआ हूँ।
मेरा हाथ नहीं उठ रहा था-
लेकिन अब मैं
अपने गांडीव की प्रत्यंचा
खींचकर चढ़ा रहा हूँ।
मेरे सामने इधर-उधर लुढ़के हुए हैं
मेरे अपने सगे-सम्बन्धियों के सिर;
और इन पीछे पड़े हैं
हमारे ही आततायी भाई।
सारथी,
रथ को यहीं रोक दो
और मेरे इस विषाद को
थोड़ा विराम दो।
अब आकाश नहीं,
पेड़ नहीं
मैं और कुछ भी देखना
नहीं चाहता
सिवा चिड़िया की आँख के।