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चिड़िया (एक) / शरद बिलौरे
Kavita Kosh से
हर उस घड़ी
जब मैं ज़ोर से रो देना चाहता था
आँसुओं को चुराकर
वह फुर्र से उड़ गई थी
और मेरे क़लम हाथ में लेने पर
वह कविता से बाहर
चोंच में चावल की चूरी दाबे
घोंसले के किनारे बैठी
भविष्य की सम्भावनाओं पर
विचार कर रही थी
हर सुबह
रसोई की खिड़की में
उबासी लेती
बाथरूम के रोशनदान में गुनगुनाती
हर रात
सपनों पर पंख फैलाए बैठी
चिड़िया हुई वह
जब कभी धूल नहायेगी
पानी ज़रूर बरसेगा।