चिड़िया / निकिता नैथानी
मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया
गीत मधुर गाती है
हैं उम्मीदें अब भी जग में
मुझको बतलाती है
कटु स्वप्नों से भरी निशा भी
अतः बीत जाती है
नया सवेरा लेकर किरणे
आख़िर आ जाती हैं
मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया …।
माना हमने जीवन में इस
दुख है कठिनाई है
दो चेहरों के लोग यहाँ पर
ना कोई हमराही है
लेकिन यही सोचकर क्या
जीवन को त्यक्त करोगे ?
या ख़ुद से भी लड़कर के
स्वयं का मान करोगे ?
सुनो, विपदाओं में पड़कर ही
मनुज सम्भल पाता है
और कँटकों के मध्य ही
पुष्प महक पाता है
मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया …।
है नहीं सम्भव इस जग में की
तुम बिना गिरे उठ पाओ
जब निकल पड़ो घर से तब
बिना भटके मँज़िल पा जाओ
मत समझो अपनी दुर्बलताओं को
अपनी हार
सुख और दुख तो अपने मन के
आते-जाते मेहमान
मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया …।
प्रकृति सृष्टि का मूल
ब्रह्म का मूल है, ये तुम जानो,
आदर करो अब भी वरना
प्रलय को तुम स्वीकारो,
पर एक बात है जो जीवन में
गाँठ बान्धकर रखना
प्रकृति माँ को भी अपनी
माँ के आँचल-सा रखना ।
जीवन है वो, उसको साधो
तुम स्वयं सम्भल जाओगे
एक दूजे का हाथ पकड़कर
ही तुम तर पाओगे
मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया …।