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चिड़ियों के साथ-6 / मीना अग्रवाल

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बेटियों के चित्र थे
जो बोल रहे थे गुप-चुप
सुन रहे थे मन की बातें
उनकी मुस्कुराहट
घोल रही थी मिसरी-सी मन में !
मीठे दिनों की मीठी मिठास
आज भी देती है तृप्तिबोध
मैं खुद भी पढ़ती रही
और बेटियों को भी पढ़ाती रही
जितना जानती थी उससे अधिक
सिखाने की कोशिश करती रही,
सीमित साधनों में भी
बाँटती रही सुख की सुवास,
बेटियों के मन में
भरती रही नई आस,
नया उल्लास और नया विश्वास !
कहीं उनसे मन की बातें
उनकी भी सुनीं,
दोनों की धूमधाम से शादी भी कर दी !
बेटियों की विदा के बाद
रह गई अकेली
जब भी होती थोड़ा उदास
बेटियाँ समझातीं--
’माँ ! कहाँ हो तुम अकेली, तुम्हारे साथ है
तुम्हारी लेखनी सहेली !’
तब से अब तक
एकाकी रात हो
या फिर ऊब भरा दिन,
तपन भरी दुपहरी हो या हो सुरमई शाम,
या फिर तड़पती अँधियारी रात
बना लेती हूँ मैं लेखनी को
अपनी प्यारी सखी !
करती हूँ उससे अंतरंग बातें
क्योंकि बेटियों की तरह ही
क़लम भी देती है ठंडक
भर देती है एकाकीपन !
बेटियों के मधुर बोल की तरह
देती है सहारा टूटे मन को,
समेट देती है बिखरे जीवन को,
शांत करती है
मन में उठने वाले तूफ़ाँ को !
आज भी जब कभी सुनती हूँ कोई कठोर शब्द
टूट जाती हूँ पूरी तरह
मन होने लगता है तार-तार
आँखें रोती हैं जार-जार
मन को बटोरती हूँ,
सँभालती हूँ और फिर
उठा लेती हूँ क़लम
याद आते हैं दादी के
कठोर पर अपनत्व भरे शब्द
फिर सोचती हूँ और समझाती हूँ स्वयं को
सीखो सहना ,
मथना सीखो अंतर्मन को
पर कभी-कभी
मन टूटता है इतना
कि सुनता ही नहीं कोई बात
याद आती हैं बेटियाँ
उनकी ही मानता है मन !
समझाती हैं वे ही, दुलारती हैं वे ही ,
टूटे,खोए एकाकी मन को
और तन्हा तन को !
गौरैया जो देख रही थी टुक-टुक
फुदक रही थी इधर-उधर
फुर्र से उड़कर बैठ गई
पेड़ की हरी डाल पर,
फुदक रही थी
एक डाल से दूसरी डाल पर
कभी उठाती तिनका
जोड़ती अपने घर में एक ईंट और !
इस तरह वो हो जाती मस्त-व्यस्त !
माँ की ख़ुशबू पाकर
बच्चे लगते चहचहाने,
चिड़िया उन्हें चुगाती दाना,
बच्चों के साथ-साथ
झूम-झूम उठती, मानो कह रही हो सीखो झेलना
समय की मार को, सीखो मुस्कुराना
उदास ज़िन्दगी में भी !
आँसुओं से कहती हूँ बारंबार मत करो
अपने अस्तित्व को रेत,
थामे रहो आशा की डोर,
कभी गीली न हो
नयनों की कोर
यदि भिगोना ही है
तो भिगोओ अंतर्मन के उन भावों को
जो हैं कठोर,
जो पड़े हैं दबे-कुचले
किसी कोने में,
भावों को भिगोकर
करदो सबको भाव-विभोर
बस पकड़े रहो जीवन-छोर !
जब भी होती हूँ उदास
या होती हूँ अकेली ,
बुला लेती हूँ अपनी सखी को
क्योंकि उसकी उपस्थिति
सहलाती है बिखरे मन को !
फिर मैं होकर निर्द्वंद्व
फैलाकर भावों के पंख
उड़ती हूँ ऊँचे-ऊँचे
कल्पना के आकाश में,
और उड़ती ही रहती हूँ चिड़ियों के साथ-साथ !