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चिड़ियों को पता नहीं / भगवत रावत

Kavita Kosh से
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चिड़ियों को पता नहीं कि वे

कितनी तेज़ी से प्रवेश कर रही हैं

कविताओं में।


इन अपने दिनों में खासकर

उन्हें चहचहाना था

उड़ानें भरनी थीं

और घंटों गरदन में चोंच डाले

गुमसुम बैठकर

अपने अंडे सेने थे।


मैं देखता हूँ कि वे

अक्सर आती हैं

बेदर डरी हुईं

पंख फड़फड़ाती

आहत

या अक्सर मरी हुईं।


उन्हें नहीं पता था कि

कविताओं तक आते-आते

वे चिड़ियाँ नहीं रह जातीं

वे नहीं जानतीं कि उनके भरोसे

कितना कुछ हो पा रहा है

और उनके रहते हुए

कितना कुछ ठहरा हुआ है।


अभी जब वे अचानक उड़ेंगी

तो आसमान उतना नहीं रह जाएगा

और जब वे उतरेंगी

तो पेड़ हवा हो जाएंगे।


मैं सारी चिड़ियों को इकट्ठा करके

उनकी ही बोली में कहना चाहता हूँ

कि यह बहुत अच्छा है

कि तुम्हें कुछ नहीं पता।


तुम हमेशा की तरह

कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो

चहचहाओ

और बेखटके

आलमारी में रखी किताबों के ऊपर

घोंसले बनाकर

अपने अंडे सेओ।


न सही कविता में

पर हर रोज़

पेड़ से उतरकर

घर में

दो-चार बार

ज़रूर आओ-जाओ।