भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चिढ / लाल्टू

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं चिढ़ता हूँ तो मेरी दुनिया भी चिढ़ती रहती है
मेरी दुनिया को चिढ़ है और दुनियाओं से
मेरी चिढ़ मेरी दुनिया भर की चिढ़ है
दुनिया भर की चिढ़ को सँभालना कोई आसान काम तो नहीं है
मैं हार गया हूँ
अपनी चिढ़ को किसी अदृश्य थाल पर लिए चलता हूँ

तुम बतलाते हो कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ
तो मुझे पता चलता है कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ
मैं किसी और से कहता होऊँगा कि वह चिढ़ कर बोलता है
वह किसी और से
यह सिलसिला चलता ही रहता है
बहुत सारी चिढ़ का पहाड़ ढोते हैं हम सब मिलकर

मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ
ऐसा नहीं कि मैं चिढ़ कर खुश होता हूँ
मैं तो सबसे मीठी बातें करता हूँ
कोई और चिढ़ रहा हो तो उसे भी सहलाता हूँ
तो मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ

ऐसा क्यों नहीं करते कि हम यह सारी चिढ़
इकट्ठी कर अमरीका के राजदूत को या हमारे
मुल्क को पाकिस्तान बनाने में जुटे मोदी सरीखों को दे दें

हो सकता है हमारे उपहार को देख वे खूब हँसें
कम से कम हमारी चिढ़ इस काम तो आएगी

या यूँ करें कि यह सारी चिढ़
किसी सभ्य कवि को दे आएँ
या किसी को जो माँग करता है कि कविता में
गाँव होना ही चाहिए

चिढ़ की पूँजी
बाँटते रहें तो कम नहीं होती
यह बात शीशे से टकराती चिड़ियों से
जानी है मैंने
वही पुरुष चिढ़
बाँटता चला हूँ।