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चिताग्नि / विमल राजस्थानी

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तप चिता की आग रे मन !
छोड़ जग-जंजाल, ऊपर, और ऊपर भाग रे मन !

लौट कर आना, पुनः जाना, पुनः आना दुखद है
बूँद का बस सिन्धु में होना तिरोहित ही सुखद है
स्वप्न है संसार, पर तू तो सजग बन
छोड़ जड़ निद्रा अहर्निश जाग रे मन
तप चिता की आग रे मन !

सृष्टि का सौन्दर्य तो क्षण-भंगुरी है
मोहिनी है, कृष्ण की पटु बाँसुरी है
अमृतवाही ओम्-ध्वनि का सिन्धु लहरे
यह निखिल ब्रह्माण्ड तो बस, अंजुरी है
सिन्धु की लहरें निमन्त्रण दे रहीं नित
लोल लहरों के थपेड़े माँग रे मन !
तप चिता की आग रे मन !