चित्तप्रसाद की 'बहार' शीर्षक कविता सुनकर / शमशेर बहादुर सिंह
फिर बहार के आते न आते
सितारों में महक थी दूरियों का हृदय झिलमिझ आईना था
शब्दों में गुँधे हुए सेहरे बहारों की नयी रिमझिम दिखाते थे
पुलक में गीत का-सा स्पर्श आँखें खोलता फिर मूँद लेता था
फूल में खू न आदमी का चमक ऊषा की रगें उम्मीद की
इतिहास का-सा बोल मन का अंतरंग
महकता था
और थी प्रेमी भुजाओं से छुटी शोडष उमंगों की महक
थी महक
शराब की
जो शहादत की फिजा में ढल रही थी कई युग से
आज गहरी ढल रही थी
और सुर्ख बच्चों के कपोलों की गुलाबी पर निछावर थी
बहार (कोरियायी आत्मा की किसी फूचिक की वहाँ एक
शांति का गीत गाती थी)
प्रेमियों की गोद है खुद इरम का बाग
वीरता की वादियों का एक नगमा
एक जोड़े की भरी गोद
सौ महाभारत निछावर एक किलकारी भरे आनंद की
छवि पर
आदमी की अमरता कवि है
और इस शब्द के मानी
बहार हैं।