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चित्रकूट स्तुति (राग कान्हारा) / तुलसीदास

चित्रकूट स्तुति (राग कान्हारा)
 
स्अब चित चेति चित्रकूटहि चलु।
 
कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह माया-मलु।।

भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर - बिहारथलु।।

 सैल-सृंग भवभंग -हेतु लखु, दलन कपट -पाखंड-दंभ-दलु। ।

जहँ जनमे जग-जनक जगतपनि, बिधि-हरि-हर परिहरि प्रपंच छलु।।

सकृत प्रबेस करत जेहि आस्त्रम, बिगत-बिषाद भये परथ नलु।।

न करू बिलंब बिचारू चारूमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु।

पुत्र सेा जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु।।

रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु।

करिहैं राम भावतैा मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु।ं

कामदमनि कामता, कलपतरू से जुग-जुग जागत जगतीतलु।

तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतिति, प्रीति एकै बलु।।