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चित्रकूट (3) / जयशंकर प्रसाद

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सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से
ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से

केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं
मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं

ऊँची शिखर मैदान पर्णकुटीर, सब निस्तब्ध थे
सब सो रहे; जैसे आभागों के दुखद प्रारब्ध थे

झरने पहाड़र चल रहे थे, मधुर मीठी चाल से
उड़ते नहीं जलकण अभी थे उपलखण्ड विशाल से

आनन्द के आँसू भरे थे, गगन में तारावली
थी देखती रजनी विदा होते निशाकर को भली

कलियाँ कुसुकम की थी लजाई प्रथम-स्मर्श शरीर से
चिटकीं बहुत जब छेड़छाड़ हुआ समीर अधीर से

थी शान्ति-देवी-सी खड़ी उस ब्रह्मवेला में भली
मन्दाकिनी शुभ तरल जल के बीच मिथिलाधिप लली

रजलिप्त स्वच्छ शरीर होता था सरोज-पराग से
जल भी रँगा था श्यामलोज्ज्वल राम के अनुराग से

जल-बिन्दु थे जो वदन पर, उस इन्दु मन्द प्रकाश में
द्रवचन्द्रकान्त मनोज्ञ मणि के बने विमल विलास में

आकराठ-मज्जित जानकी चन्द्रभमय जल में खड़ी
सचमुच वदन-विधु था, शरद-घन बीच जिसकी गति अड़ी

जल की लहरियाँ घेरती वन मेघमाला-सी उसे
हो पवन-ताड़ित इन्दु कर मलता निरख करके जिसे

कर स्नान पर्णकुटीर को अपने सिधारी जानकी
तब कंजलोचन के जगाने की क्रिया अनुमान की

रविकर-सदृश हेमाभ उँगाली से चरण-सरसिज छुआ
उन्निद्र होने से लगे दृगकज्ज, कम्प सहज हुआ

उस नित्यपरिचित स्पर्श से राघव सजग हो जग गये
होकर निरालस नित्यकृत्य सुधारने में लग गये

फलफूल लेने के लिए तब जानकी तरू-पुंज में
सच्चारिणी ललिता लता-सी हो गई घन-कुंज में

अपने सुकृत-फल के समान मिले उन्हें फल ढेर से
मीठे, नवीन, सुस्वादु, जो संचित रहे थे देर से

हो स्वस्थ प्रातःकर्म से जब राम पर्णकूटीर में
आये टहल मन्दाकिनी-तट से प्रभात-समीर में

देखा कुशासन है बिछा, फल और जल प्रस्तुत वहाँ
हैं जानकी भी पास, पर लक्ष्मण न दिखलाते वहाँ