चित्रकूट (4) / जयशंकर प्रसाद
सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को
तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को
‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’
प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे
‘आये, होगा स्वादु मधुर फल यह पका
देखो, अपने सौरभ से है सह छका’
लक्ष्मण ने यह कहा और अति वेग से
चले वृक्ष की ओर, चढ़े उद्वेग से
ऊँचा था तरूराज, सघन वह था हरा
फल-फूलों से डाल-पात से था भरा
लक्ष्मण तुरत अदृश्य उसी में हो गये
जलद-जाल के बीच विमल विधु-से हुऐ
टहल रहे थे राम उसी ही स्थान में
कोलाहल रव पड़ा सुनाई कान में
चकित हुए थे राम, बात न समझ पड़ी
लक्ष्मण की पुकार तब तक यह सुन पड़ी-
‘आर्य, आर्यं, बस धनुष मुझे दे दीजिये’
कुछ भी देने में विलम्ब मत कीजिये’
कहा राम ने--‘वत्स, कहो क्या बात है
सुनें भला कुछ, कैसा यह उत्पात है’
लक्ष्मण ने फिर कहा--‘देर मत कीजिये
आया है वह दुष्ट मारने दीजिये’
‘कौन ? कहो तो स्पष्ट, कौन अरि है यहाँ !’
कहा राम नें--‘सुनें भला, वह है कहाँ’
‘दुष्ट भरत आता ले सेना संग में
रँगा हुआ है क्रूर राजमद-रंग में
उसका हृद्गत भाव और ही आर्य है
आता करने को कुछ कुत्सित कार्य है’
सुनकर लक्ष्मण के यह वाक्य प्रमाद से--
भरे, हँसे तब राम मलीन विषाद से
कहा--‘उतर आओ लक्ष्मण उस वृक्ष से
हटो शीघ्र उस भ्र्रम-पूरित विषवृक्ष से’
लक्ष्मण नीचे आकर बोले रोष से--
‘वनवासी हुए हैं आप निज दोष से’
भरत इसी क्षण पहुँचे, दौड़ समीप में
बढ़ा प्रकाश सुभ्रातृस्नेह के दीप में
चरण-स्पर्श के लिए भरत-भुज ज्यों बढ़े
राम-बहु गल-बीच पड़े, सुख से मढ़े
अहा ! विमल स्वर्गीय भाव फिर आ गया
नील कमल मकरन्द-विन्दु से छा गया