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चित चाह अबूझ कहै कितने छवि छीनी गयँदन की टटकी / द्विज

चित चाह अबूझ कहै कितने छवि छीनी गयँदन की टटकी ।
कवि केते कहैं निज बुद्धि उदै यह लीनी मरालन की मटकी ।
द्विजदेवजू ऎसे कुतर्कन मे सबकी मति योंहि फिरै भटकी ।
वह मँद चलै किन भोरी भटू पग लाखन की अँखियाँ अटकी ।



द्विज का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।