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चिनगारियों की सुर्ख डगर देख रहा हूँ / डी .एम. मिश्र
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चिनगारियों की सुर्ख डगर देख रहा हूं
इक आग का दरिया है जिधर देख रहा हूं
बाहर से खूब जगमगा रहीं इमारतें
अंदर से बेचिरागी शहर देख रहा हूं
कुछ लोग कहेंगे ही ज़माना ख़राब है
लेकिन मैं ज़ालिमों का कहर देख रहा हूं
रोते हुए बच्चों के जरा पोंछ लूं आंसू
ठहरो अभी कुछ देर उधर देख रहा हूं
तक़सीम हुई ज़िंदगी मेरी हज़ार बार
हासिल न बचा कुछ भी शिफ़र देख रहा हूं
कितना तड़प रहा लहूलुहान परिंदा
पूरी ज़मीन ख़ून से तर देख रहा हूं
लाज़िम है यही झूठ से पर्दा उठाइये
जो दिख रहा मैं उससे इतर देख रहा हूं
परचम उठा लिया है मैंने इन्क़लाब का
मुझ पर गड़ी है उसकी नज़र देख रहा हूं