चिन्ता अर्थहीन बेबसी / राजकमल चौधरी
आकाश के अस्थिर चित्र नीचे झुकेंगे और
झुकेंगे, झूलेंगे मेघ
ऊँचे वृक्षों के माध्यम से, साधन से धरती
(कुँवारी है अब तक जिसकी पिपासा...)
ऊपर उठेगी
उठती, उभरती, उजागर होती चली जाएगी !
और,
अनेकों निरुद्देश्य, निरीह लोग यों ही जग जाएँगे,
एक धुआँ उठेगा उबलता हुआ
चाहे यह धुआँ ‘टियरगैस' ही क्यों न हो ?
एक अलाव जलेगा चटकता हुआ ।
चाहे इसमें हमारे पाँव ही क्यों न जल जाएँ ?
मगर, निरीह लोग यों ही जग जाएँगे
वायु के अकस्मात पिघले हुए झोंकों से चौंककर
टूट जाएगा उनकी विवशताओं का ख़ुमार,
टूट जाएगा ज़ेहन पर नया गर्दोगुबार
(आदमी है; आख़िर, साफ़-सुथरा रहना ही चाहिए
मोटी-मोटी फ़ाइलों का कूड़ा बुहारने लग जाएँगे)
ऑफ़िसों के टेबुल पर ऊँघते हुए लोग,
काग़ज़ के महल, बाग़-बग़ीचे, घर-परिवार बनाने लगेंगे
रेसकोर्स के टिकट-घर की क्यू में खड़े आदमी !
और, जीवन की पाण्डुग्रस्त रोशनी का बौना स्तम्भ
ऊदी भनभनाहटों से घिर-घर जाएगा व्यर्थ
हर ओर से टूटे हुए पालों की नौकाएँ आएँगी
टकराएँगी अन्धेरे में, अनर्थ !
डूबी हुई नावों में डूबे हुए लोग
उतार फेंकेंगे शील का रेशमी वस्त्र-खण्ड
उतार फेंकेंगे चेहरे संस्कृतियों की नक़ाब,
जल के तल पर कौन किसे जानेगा पहचानेगा ?
अनस्तित्व की परिधि में कौन किसे मानेगा, सम्भालेगा ?
नंगे हो जाएँगे
भिखमंगे हो जाएँगे
मगर, किसके लिए-किसके लिए ? — किसके लिए ?
क्योंकि,
अहल्याएँ तो अभी तक पत्थर बनी सोई हैं,
(तुमने ही दिया था शाप — हे गौतम !
तम से उन्हें उबारे कौन ?)
अनागत के आने की दुविधा में खोई है,
क्योंकि,
सभी व्यक्ति तुम जैसे ही, मुझ ऐसे ही
टूटे हुए
टूटे हुए
डूबे हुए
चौराहों के बुझे-बुझे लैम्प-पोस्ट,
खेतों के उजड़े हुए मचानों के बाँस-खम्भे,
फूल पात फल डाल रहित वृक्ष
ऊँचे शो-केसों के पारदर्शी शीशे,
(जिनमें खड़ी हैं प्लास्टिक की प्रकृत-वस्त्रा महिलाएँ)
गुलदस्तों में जमाए गए काग़ज़ के गुलाब खड़े हैं
थकी-थकी हारी हुई, भारी हुई मुद्राओं में
उफ ! कहीं कोई शब्द नहीं
शब्द नहीं, वाक्य, ध्वनि, लय, छन्द, गीत नहीं
उठता उभरता है उनके अन्दर !
मगर, वे नहीं गाएँगे,
वे नहीं सोई हुई अहल्या को जगाएँगे
तो क्या अनागत नहीं आएगा ?
तो, क्या कोई नहीं आएगा ?
गूँगा ही रह जाएगा सारा संसार ?
खुलेगा नहीं गीतों का द्वार ?