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चिन्ता है फकीरों की / भारत यायावर
Kavita Kosh से
क़ातिलों का काफ़िला
दंगाइयों से मिल गया है
एक हंगामे में तब्दील हो गया है शहर
कोई नहीं सुन रहा किसी की
सिर्फ़ शोर-गुल
धमाके
धमाधम
धमधम
चारों ओर !
ऐसे में एक कविता
लहूलुहान
जान बचाती फिर रही है
कौन उसकी सुनेगा
अपने दिल में जगह देगा
करुणा से भरी पुकार सुनेगा
प्यार की आँखें बिछाएगा
स्वयं उसके हित में बिछ जाएगा ?
कविता मर रही है
हाँपती सी
लड़खड़ाती धूल-धुसरित
चल रही है
मानो स्वयं से लड़ रही है
मानो मानवीयता की लौ टिमटिमाती बुझ रही है !