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चिरंतन वसंत / माहेश्वर तिवारी
Kavita Kosh से
ख़त्म नहीं होगा
वसंत का आना यह
हर बार
ख़त्म नहीं होगा
पलाश के फूलों वाला रंग
पतझारों को रोंद
विहसने-गाने का यह ढंग
ख़त्म नहीं होगा
मनुष्य से
फूलों का व्यवहार
आम्र-बौर से
संग हवा के उड़ने वाली गंध
होठों जड़ी ऋचाओं को
कर देगी फिर निर्बंध
ख़त्म न होंगे
बोल, परन टुकड़े, टप्पे,
ततकार
बारूदों पर नए
सृजन की भाषा का संभार
बाहर-भीतर घटित
हो रहा रिश्तों का त्यौहार
बना रहेगा
रचते रहने का
जीवित संसार