चिरप्रतीक्षा / विजय कुमार विद्रोही
रजनी ने तोड़ा है दम अब प्रथम रश्मि दिख आई है ।
उर में कसमस भाव लगे पिय का संदेशा लाई है
तेरह दिन बारह रातों का साथ अभी तक देखा है
मेरे इस जीवन की ये कैसी बेढंगी रेखा है
ख़त को पढ़कर लगता अपने आँसू से लिख डाला है
ये है संदेशा आने का चारों ओर उजाला है
सारी बिरहा भूली अब सोलह श्रृंगार करूँगी मैं
केवल कुछ दिन शेष बचे जी भरकर प्यार करूँगी मैं
सावन झूला भरे तपन के जेठ दिवस में झूलूँगी
प्रियतम की बाहों में मैं थोड़ा आनंदित हो लूँगी
चूड़ी की खनखन मैं साजन के कानों में घोलूँगी
थककर अपने सैंया के सीने पे सर रख सो लूँगी
जाने क्यूँ कौये की बोली कोयल जैसी लगती है
झींगुर के स्वर से बेचैनी मधुर मिलन को तकती है
गोभी की तरकारी को वो बड़े चाव से खाते हैं
जब वो हैं बाहर जाते तो पान चबाकर आते हैं
कुछ बातें हैं जो मैं केवल उनको ही बतलाऊँगी
अपने दिल की सारी पीड़ा सारा हाल सुनाऊँगी
दुष्ट पड़ोसन ने इक पीली महँगी साड़ी ले ली है
दिखा दिखाकर मुझको मेरी मजबूरी से खेली है
आने दो मैं भी उनसे महँगी साड़ी मँगवाऊँगी
रोज़-रोज़ गीली कर करके उसको देख सुखाऊँगी
ये क्या अपनी बस्ती में ये कैसी गाड़ी आई है
दिल की धड़कन तेज़ हुई क्यूँ ऐसी पीर जगाई है
पति आपके बहुत वीर थे ऐसा इक अफसर बोला
काँप उठी,नि:शब्द हो गई ,आँख फटी धीरज डोला
दौड़ी मैं घर से बाहर इक बक्से में था नाम लिखा
लगता मानों जीवन का था अमिट शेषसंग्राम लिखा