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चिराग़ बनके कोई राह दिखाता है मुझे / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
राह अनजान है, तूफां भी डराता है मुझे,
मैं तो गिर जाऊं तेरा प्यार बचाता है मुझे
घेर लेते हैं अँधेरे, निगाह को जब भी
चिराग़ बनके, कोई राह दिखाता है मुझे
जब भी होता है गिला मुझको, मुकद्दर से मेरे
दिल की दुनिया में कोई पास बुलाता है मुझे
जिस तरफ देखूं, जहाँ जाऊं, तेरा ही चेहरा
हाय रे 'इश्क', अजब रंग दिखाता है मुझे
जिक्र जब तेरा उठे , कैसे सम्भालूँ खुद को
दोस्त कहते हैं कि, तू नाच नचाता है मुझे
प्यार करता है मुझे बेपनाह वो जालिम
दिन में दो चार दफे रोज़ रुलाता है मुझे
वो न मिलता तो भला कौन समझता मुझको
प्यार उसका ही तो ‘आनंद’ बनाता है मुझे