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चिराग़ मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं / परवीन शाकिर
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चिराग़ मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं
अँधेरा कैसे बताएं कि अब तो शब् भी नहीं
जो मेरे शेर में मुझसे ज़यादा बोलता है
मैं उसकी बज़्म में इक हर्फ़ ए ज़ेर ए लब भी नहीं
और अब तो जिंदगी करने के सौ तरीके हैं
हम उसके हिज्र में तन्हा रहे थे जब भी नहीं
कमाल शख्स था जिसने मुझे तबाह किया
खिलाफ उसके ये दिल हो सका है अब भी नहीं
ये दुःख नहीं कि अंधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं