चिलबिल्ला अगहन / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
कोहरा कॊहरा मन,
शीतल चली पवन।
भरे लवादों के भीतर भी,
सिकुड़ रहा है गात।
आज हवा ने बिना बात के,
बदली अपनी जात।
सूरज से हुई न जाने क्यों,
धरती की अनबन।
सर्द हवाएँ ठंडी ठंडी
करतीं हल्ला बोल।
सबको आने लगा समझ में,
आज आग का मोल।
धुंआँ-धुंआँ होकर मौसम ने,
ओझल किया गगन।
सड़कों पर छितराये स्वेटर,
छुपे-छुपे से घर। ।
रुआँ-रुआँ पथ और गलियारे,
सिकुड़े गाँव शहर।
रातें सोईं ओढ़ रजाई,
बर्फ हुआ कण कण।
कड़क चाय की चुस्की लेकर,
उठ पाता बिस्तर।
तम्बाकू बीड़ी पीकर अब,
सुस्ताये दोपहर।
छत पर खड़ा टकोरा मारे,
चिलबिल्ला अगहन।
भोर, चलाकर पंप नदी पर,
गेहूँ सिंचवाती।
अलसी लगी नाचने गाने,
कूल्हे मटकाती।
मन मयूर महका धरती का,
जैसे हो चंदन।