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चिलमन से दो दामन के किनारे निकल आए / 'नुशूर' वाहिदी

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चिलमन से दो दामन के किनारे निकल आए
वारफ़्ता-निगाही के सहारे निकल आए

पैमाना-ब-कफ़ साथ तुम्हारे निकल आए
हँगामा-ए-हस्ती से किनारे निकल आए

इक सादगी-ए-हुस्न की मासूम अदाएँ
रंगीन मज़ार्मी के इशारे निकल आए

दौलत का फ़लक तोड़ के आलम की जबीं पर
मज़दूर की क़िस्मत के सितारे निकल आए

सब भूल गए पेच-ओ-खम-ए-होश में रस्ते
इस राह पे कुछ इश्‍क के मारे निकल आए

सब डूब गए तल्ख़ी-ए-नाकामी-ए-ग़म में
कुछ आप के दामन के सहारे निकल आए

गुस्ताखी-ए-बाराँ से वो पैराहन-ए-पुर-नम
भीगे हुए जलवों से शरारे निकल आए

रूख़्सत के वो आँसू वो निगाहों की उदासी
थी शाम मगर सुब्ह के तारे निकल आए

आँखों में नज़र आने लगे ख़ून के आँसू
उट्ठो के बस अब सुर्ख़ सितारे निकल आए

रिज़वाँ से बग़ावत है ‘नशुर’ और मय-ए-कौसर
उक़बा में भी कुछ काम हमारे निकल आए