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चिह्न / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
क्यों मेरा हर लफ़्ज
तुम से शुरू
तुम पर होता है खत्म,
क्यों मेरी साँसें भी
अब
नहीं लगती
मेरी सी
इतनी विवश तो न थी
पहले कभी
इतना तो कभी चाहा न था
खुद को
हाँ, इतना बनना-सँवरना
खुद से बातें करना
न था पहले कभी
क्यों जिन्दगी
मेरी अपनी नहीं
लगती है
अमानत तुम्हारी
और
मैं
सिर्फ़ तुम्हारी
कौन सा बंधन है
जिससे खुद-ब-खुद
बंध गई हूँ मै
क्यों यह सिंदूरी रेखा
दिलाती है
अहसास
कि मैं
तुम्हारी रहूँगी सदा
एक नहीं
सात जन्मों तक
चाहत है
तुम्हें सिर्फ़ तुम्हें पाने की
किन्तु
तुम पर
क्यों नहीं
नजर आता
मेरे बस मेरे होने
का एक भी चिह्र्न?