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चींटियाँ / रामकिशोर दाहिया

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झुण्ड लेकर
चींटियाँ फिर
बेटियों-सी द्वार
भरने आ गईं
भावना की
पंखुरी पर
शुभ लगुन के
फूल धरने आ गईं।

चित्रकारी भी गज़ब की !
दिख रहीं हैं
देहरी के
द्वार भरती रीतियाँ
क्या भला इनसे लगेंगे
तरुणियों के
गीत मंगल
या वनों की वीथियाँ!
सरहदों को लाँघती
आँखें किसी से
चार करने आ गईं।

गंध की गोपित दिशा में
छिपकली-सी
हर जगह
दीवार पकड़े चल रहीं हैं
पंक्तियों में साँझ को
डूबी सड़क पर
धूल ओढ़े
बत्तियों-सी जल रहीं हैं
सज-सँवरकर
लड़कियाँ-
ज्यों गाँव का
बाजार करने आ गईं।

-रामकिशोर दाहिया