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चींटी-फींटी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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कुछ दिल्ली में
कुछ भोपाल में
हिनहिना रहे हैं
श्रोता अपने कानों को खड़ा कर
दत्तचित्त होकर, बहुत बलपूर्वक
अपनी हुआँ-हुआँ दबा रहे हैं
कुछ लालफीताशाही में उलझे
कुछ अफसरशाही से सुलझे
एक अलग तंत्र चला रहे हैं
पाखंड और ढोंग की
एक नई दुनिया बसा रहे हैं
तुम्हें तुमसे मुक्ति दिलाने को
बड़े आदमी
तुम्हारे द्वार पर आ रहे हैं
स्वागत करो
बजाओ तालियाँ
भेंट करो फल-फूल
मत जाओ तुम भूल
अपनी औकात
कभी भी आगे बढ़कर
ना करो बात
प्रशंसा के अलावा
उन्हें कुछ नहीं सुहाता
सुविधा-संपन्न जीवन के अलावा
उन्हें कुछ नहीं भाता
बाकी बचे हुए
गिरे पड़े चूहे-कॉकरो, टिड्डी-विड्डी
ध्यान-मगन शब्द चबा रहे हैं
उगलेंगे, ढालेंगे, भाग्य
स्याही-दर-स्याही
हाँ, अब लिखेंगे
चूहे-कॉकरोच, टिड्डी-फिड्डी
चींटी-वींटी का भाग्य
कितने साल जीओगे
कैसे और कहां पर
अगर झेल गये बाढ़ और सूखा
या खींचा जायेगा तुम्हारा फंदा
या काल-कोठरी उम्रभर
हाँ, उम्रभर ही
तुम्हारे मरने तक
आदेश है खुदाई
फैसला करने का
बिना किसी किंतु-परंतु के तुरंत
ओ भाग्यहीन
अगर तुम भाग्यशाली होते
तो इनके पल्ले क्यों पड़ते
झुकाओ अपना शीश
आदर सहित
मन से
वरना हो सकती है अवमानना
तुम्हारी खुद की, खुद को
इनसान समझने की
कितना विरोधाभास है
अंधकार के हाथों में
रोशनी की किरण
अंधे की लाठी में
रास्ते की छुअन
इस लाठी को कभी मत पकड़ना
ये सत्य की बीमारी लगा देती है
अच्छे-भले इनसान को
हरिश्चंद्र बना देती है
माँगने लगोगे
फिर तुम भी कफन
जीते-जी पहुँच जाओगे शमशान में
वक्त से पहले ही
धू-धूकर जलोगे मसान में।