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चींत / प्रहलादराय पारीक
Kavita Kosh से
फूलां री सौरम ज्यूं
अदीठ
पण, आखर स्यूं भारी
हुवै चींत।
चींत रै ताण
तणीजै ताणे
मिनख रो, समाज रो,
आखै जगत रो।
सौधीजै सौरफ,
सगळी जीया जूंण री
चींत रूखाळै, पाळै,
सम्हाळै-मानखो।
देवै दीठ जीवण रै
उजळै परख री।
समंदर स्यूं ऊंडी,
आभै स्यूं ऊंची,
मरूस्थल रो रूंख
हुवै चींत।
ढूंढै जीवण,
मौत री काळी गार मैं।