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चीख़ उठता है शहर रात गए / विजय किशोर मानव

चीख़ उठता है शहर रात गए
ऐसे ढहते हैं कहर रात गए

आएगा क्या सुबह ख़बर बनकर
सोच के लगता है डर रात गए

ख़ून की इस नदी की आंख बचा
तट से मिलती है लहर रात गए

आंख खिड़की से लगी रहती है
घूमा करती है नज़र रात गए

दिन थकानों में डुबोया करते
नींद आती है मगर रात गए

टूटे सपनों में समाई यादें
काटने लगता है घर रात गए