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चीख उठे जब यहां-वहां बनी लकीर हम / सांवर दइया

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चीख उठे जब यहां-वहां बनी लकीर हम।
सभी लोगों की नज़रों में हो गए कबीर हम।

रूढ़ियों ने जब सांस को लहूलुहान किया तो,
वहां से निकल आए झंझावातों को चीर हम।

हर सांस घुटती है, यहां हवा तक नहीं आती,
बदलने चले इस दुनिया की सूरत अधीर हम।

आज तक एक हवेली तो खड़ी कर ही लेते,
जिंदगी समझने की सनक में हुए फकीर हम।

यहां आकर लौट चलना, सुनो है संभव तभी,
जब न देखें किसी के आगे-पीछे जंजीर हम।