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चीजें जो बार बार मेरे पास आती हैं / नरेश अग्रवाल

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हर जगह की मिट्टी अलग-अलग होती है
और वहाँ के खूबसूरत धरती-चित्र भी
सभी की एक सीमा होती है
जिसमें समा जाते हैं हमारे सारे अनुभव
एक डाली भी झुकी हुई
दे जाती है अद्भुत आकार एक चित्र को
और घर से निकलता धुआँ
जैसे बहुत बड़ी घटना घट रही है यहाँ
मैं चरवाहे से नहीं पूछता तुम क्या कर रहे हो
न ही पानी भरती औरतों से कुछ
सभी जानते हैं
ऊबड़-खाबड़ जमीन में चलने मे दिक्कुत होती ही है।
समय बिना काम किये हुए गुजरे तो वह भार है।
यहाँ पर जो कुछ भी है
बार-बार वह अपनी सीमा तोड़कर मेरे पास आता है
शाम के बाद मिट्टी की दुनिया खामोश हो जाती है
लेकिन विचारों की नहीं।
मेरे इस चाय के प्याले में तैरती है वह झील
पास ही सेब पड़े हैं दो-चार
जो बाद में खाये जाएँगे
ये पत्ते हों या वे फूल
सभी तो अपने आप याद आते हैं
और इस जीवन से
कितना चुप चाप निकल गया था मैं
बाद में ही इसका एहसास हुआ था।