भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चीटियाँ / प्रशांत विप्लवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुना है
चीटियाँ नहीं सोती कभी...
सतत पंक्ति-बद्ध अनुशासित
या अकेले भी
चुपचाप खड़ी नहीं होती
मरने तक
भागम-भाग में लगी रहती है

सुबह
सड़क पर...
रंग-बिरंगी चीटियाँ
रेंग रही है
अपने छोटे-छोटे बच्चों का बस्ता कंधे पर लिए

सुबह
चूल्हे की आग में
चीटियाँ झुलसा रही है
अपना ही चेहरा

सुबह
रात चाटे गए बर्तनों को
चमका रही है चीटियाँ

सुबह
बसों-ट्रेनों के पीछे
भाग रही है चीटियाँ

सुबह
चाय के साथ
अखबार पर गमगीन हो रही है चीटियाँ

चीटियाँ...
रात तक...
क्लांत नहीं होंगी

नयी उर्जा से
खुद को ही परोस देगी चीटियाँ
और बचे-खुचे देह से
फिर सुबह की तैयारी में
जुट जायेंगी चीटियाँ

घंटे-दो-घंटे खूब पूछने पर
गिरहें खोलती है चीटियाँ
अपनी ही आंसुओं में
खूब बहती है चीटियाँ

डरता हूँ
उसके अनथक प्रयास से
घुमती पृथ्वी अपने धूरी से सरक न जाए किसी दिन

डरता हूँ
उसके ताकने से
सूर्य न झुलस जाए

डरता हूँ
उसके अवसाद में
घुल न जाए समुद्र का खारा पानी

डरता हूँ
उसके बंधे ख़्वाबों की गिरहें खुल न जाए किसी दिन
और चीटियाँ
आकाश कर ले खुद को
अपने लिए... हमारे लिए बस एक छलावा बनकर