भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चील और पंच तत्व / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधकार आया
चील बनकर
और मेरे हाथ से
छीन ले गया यह दिन
बीच बाजार
ठीक दुपहर का वक्त था

अंकित है
हवा की विराट स्मृति में
यह घटना --
दूसरी स्मृतियों को
झकझोरती
यह बेचैन स्मृति
तब से हवा में
उकसा रही है तूफान
और
बुन रही है
तूफान के पहले की
शान्ति की सनसनी

दिशायें आपस में
अदल बदल लेती हैं
अपनी जगह
रात में सोते हैं पूरब की तरफ
मुँह करके हम
तो जगते हैं
पश्चिम में

दिशायें इस संसार को
किसी आक्रमण से
बचाने के लिये
रोज-रोज रचती हैं
नया चक्रव्यूह,
सिर्फ सूर्य को
पता रहता है
उनका यह रहस्य,
चील के खिलाफ
दिशायें दिन रात
बुनती रहती हैं
रक्षा कवच

तटस्थ जरूर हैं चट्टानें
किन्तु चट्टानें भी
तपती हैं निदाध में,
और गाती हैं पावस में
जब उन पर
बहता है
कल-कल जल,
चट्टानों पर भी
पड़ते हैं रक्त के दाग
युद्ध के निशान,
चट्टानों की स्मृति में
छोटा-सा एक
भूकम्प थरथरा रहा है
मेरे हृदय के साथ
मिला कर लय से लय,
चट्टानें पिघल रही हैं
धरती के
अन्तस्तल में गहरे,

इतिहास के साथ
आती है अग्नि
घोड़े के खुरों से
उड़ती चिनगारियाँ बन,
अग्नि आती है
विजय पताकाओं सी
फहराती,
कंडे की आग और
अग्निहोत्र-सी
सुलगती रहती है पेट में
अग्नि,
अग्नि मनुष्य को मशाल की तरह
खूनी जन्तुओं के
आक्रमण से बचाती है
सघनतम अन्धकार में

दुनियाँ की सारी आँखों को
छूता है जल
कभी न कभी --
कोई भी नहीं है
जल से बड़ा रूपंकर कोई नहीं

जहाँ जैसा होता है
वहाँ वैसा रूप धर लेता है जल --
चन्द्रमा में
छलछलाता उत्कण्ठा की तरह,
दर्प की तरह दमकता
फलों में
और
बर्फ की तरह जम जाता है
क्रूर सौन्दर्य में,
जल की पर्तों पर अंकित है
दुनियाँ के सारे आख्यान
नदी तट की सारी सभ्यतायें
सारे विजय अभियान
जल देवियों की सारी
किंवदन्तियाँ जलविहार चीरहरण......

अभी तो
अपने को समेट रहा है जल,
सृष्टि का अंतिम
और अभूतपूर्व ज्वार
उठने को है समुद्रों में

दुनियाँ के
प्रबल प्रतापी युद्ध पोतों को
बड़ी आसानी से
डुबो देता है जल
चुल्लू भर पानी में।