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चील / तुलसी रमण
Kavita Kosh से
आसमान में उड़ती
चील की झोली में
अनगिनत मुट्ठियाँ रेत है
जमीन पर फले
कबूतरों के लिए
जिस छोर से भी
फड़फड़ाते हैं पंख
एक मुट्ठी रेत
फेंक देती है चील
और व्यस्त हो जाते हैं कबूतर
दाना–दाना खोजने में
चील की इस चाल पर
जब सिर उठाते हैं कबूतर
चील छेड़ देती है मल्हार
सावन के अंधों के लिए
ज्यों–ज्यों बदलते हैं मौसम
चील बदल देती है राग
खाली पेट कहीं शुरू होता है तांडव
कहीं नंगे तन भरत–नाट्यम्
और कहीं रणबाँकुरे करने लगते अभ्यास
पहाड़ से समुद्र तक
फैली जमीन पर
कबूतरों की गुटरगूँ
और चील का राग है
बहुत कम दिखाई पड़ते हैं
डफलियाँ लिए वे कुछ हाथ
जिनका अपना–अपना राग है